तीसरा अध्याय

 

इन्द और विचार-शक्तियाँ

 

ऋग्वेद, मण्डल 1, सूक्त 171

 

प्रति व एना नमसाहमेमि सूक्तेन भिक्षे सुमतिं तुराणाम् ।

रराणता मरुतो बेद्याभिनिं हेडो धत्त वि मुचध्वमश्वान् ।।1 ।।

 

(एना नमसा ) इस नमनके साथ (अहम् व: प्रति एभि) मैं तुम्हारे प्रति आता हूँ, (सूक्तेन) पूर्ण शब्दके द्वारा मैं (तुराणाम् सुमतिं भिक्षे) उनसे सत्य मनोवृत्तिकी याचना करता हूँ जो यात्रामें तीव्र गतिवाले हैं ।  (मरुत: ) हे मरुतो ! (वेद्याभि: रराणत) ) ज्ञानकी वस्तुओंमें आनंद लो,  (हेड: ) अपना क्रोध (निधत्त ) एक तरफ रख दो, (अश्वान् ) अपने घोड़ोंको (विमुचध्वम्) खोल दो ।।1 ।।

 

एष व: स्तोमो मरुतो नमस्यान् हृदा तष्टो मनसा धायि देवा: ।

उपेमा यात मनसा जुषाणा यूयं हि ष्ठा नमस इद् वृषास: ।।2|

 

(मरुत: ) हे मरुतो ! (एष व: स्तोम: ) देखो, यह तुम्हारा स्तोत्र है; (नमस्वान् ) यह मेरे नमनसे परिपूर्ण है, (हृदा तष्ट: ) यह हृदय द्वारा रचा गया था, (देवा: ) हे देवो ! (मनसा धायि ) यह मन द्वारा धारण किया गया था, (इमा: उपयात ) मेरे इन स्तोत्रोंके पास पहुँचो  (मनसा जुषाणा: ) और इन्हें मन द्वारा सेवित करो; (हि) क्योंकि (यूयम्) तुम (नमस: ) नमनके1 (इद् ) निश्चयपूर्वक (वृधास: स्था: ) बढ़ानेवाले हो ।।२।।

 

स्तुतासो नो मरुतो मुलळयन्तुत स्तुतो मधया शंभविष्ठ: ।

ऊर्ध्वा न: सन्तु कोम्या वनान्यहानि विश्वा मरुतो जिगीषा ।।3।।

 

(स्तुतास: मरुत: ) स्तुति किये हुए मरुत् (नं: मृळयन्तु ) हमारे लिये सुखप्रद हों, (उत स्तुत: मघवा) स्तुति किया हुआ ऐश्वर्यका अधिपति 

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1. सायणने यहां सर्वत्र 'नमस्'का वही अपना प्रिय अर्थ 'अन्न' किया है । क्योंकि 

 ''प्रणामके बढ़ानेवाले'' यह अर्थ, स्पष्ट ही, नहीं हो सकता । इस संदर्भसे तथा

 अन्य कई संदर्भोंसे यह स्पष्ट है कि यह शब्द नमस्कारके भौतिक अर्थके पीछे अपने

 साथ एक आध्यात्मिक अर्थ मी रखता है जो यहां साफ तौर पर अपनी मूर्त्त प्रतिमा

 छोड़कर सामने आ गया है |

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 [ इन्द्र ] तो (शंभविष्ठ: ) पूर्णतया सुख का रचयिता हो गया है । (न: कोम्या वनानि ) हमारे वांछनीय आनंद1 (ऊर्ध्वा: सन्तु) ऊपरकी ओर उत्थित हो जायँ, (मरुत: ) हे मरुतो! (विश्वा अहानि ) हमारे सब दिन (जिगीषा) विजयेच्छाके द्वारा (ऊर्ध्वा सन्तु) ) ऊपरकी ओर उत्थित हो जायँ ।।3।।

 

अस्मादहं तविषादीषमाण इन्द्राद् भिया मरुतो रेजमान: ।

युष्मभ्यं हव्या निशितान्यासन् तान्यारे चकृमा मृळता न: ।।4।।

 

(अस्मात् तविषाद् ईषमाण: ) इस महाशक्तिशाली द्वारा अधिकृत हुए (इन्द्राद् भिया रेजमान: अहम् ) इन्द्रके भयसे काँपते हुए मैंने (मरुत: ) हे मरुतो ! (युष्मभ्यं हव्या निशितानि आसन् ) जो हवियाँ तुम्हारे लिये तीब्र बनाकर रखी थीं (तानि ) उन्हें (आरे चकृम ) दूर रख दिया है ।  (न: मृळक) हमपर कृपा करो ।।4।।

 

येन मानासश्चितयन्त -उस्रा व्युष्टिषु शयसा शश्वतीनाम् ।

स नो मरुद्धिर्वृषभ श्रूवो धा उप उग्रेभि: स्थविर: सहोदा: ।।5।।

 

(येन) जिसके द्वारा (मानास: ) मनकी गतियाँ (व्युष्टिषु) हमारे प्रभातकालोंमें (शश्वतीनां शवसा2 ) शाश्वतिक उषाओंकी प्रकाशमयी शक्तिके द्वारा (चितयन्त: ) सचेतन और (उस्राः3)  प्रकाशसे जगमग हो जाती हैं (स वृषभ4 ) उस तूने, हे गौओंके पति ! (मरुद्धि: ) मरुतोंके

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1. 'वन' शब्दके दोनों अर्थ हैं ''जंगल'' और ''सुखमोग'' या विशेषणके रूपमें लें तो

  ''सुखमोगके योग्य'' । वेदमें प्रायः यह द्विविध अर्थको लिये हुए आता है-हमारी

  मौतिक सत्ताको ''सुखदायी वृद्धियां'', वनानि पृथिव्या: ।

2. वेदमें सामर्थ्य, बल, शक्तिके लिये बहुतसे शब्द प्रयुक्त दुए है और उनमेंसे प्रत्येक

  अपने साथ एक विशेष सूक्ष्म अर्थभेद रखता है । 'शवस्' शब्द प्रायः शक्तिके साथ 

.   प्रकाशके अर्थको भी देता है |

3. स्त्रीलिंगमें 'उस्रा' यह शब्द 'गो'के पर्यायवाचीके रूपमें प्रयुक्त दुआ है, जिसके एक

  साथ दोनों अर्थ है, गाय और प्रकाशकी किरण । 'उषा' भी गोमती है अर्थात् किरणोंसे

  परिवृत या सूर्यको गौओंसे युक्त । मलू मंत्रमें 'उस्रा'को स्वरसाम्य रखनेवाज्ञे एक

  शब्दके साथ मिलाकर अर्थगर्भित प्रयोग किया गया है 'उस्रा व्युष्टिषु'; यह वैदिक

  ॠषियों द्वारा प्रयुक्त उन सामान्य युक्तियोंमेंसे एक है जो ऐसे विचार या संबंधको

  ध्वनित करती है जिसे ॠषि स्पष्ट तौरसे खोज देना आवश्यक नहीं समझते ।

4. 'वृषम'का अर्थ है बैल, पुरुष, अधिपति या बीर्यशाली । इन्दको सतत रूपसे 'वृषम'

  या 'वृषन्' कहा गया है । कहीं यह शब्द अकेला स्वयं प्रयुक्त हुआ है जैसे कि यहां;

  और कहीं इसके साथ अन्वित (संबद्ध) किसी दूसरे शब्दके साथ, जो इसके साथ गौओं-

  के विचारको ध्वनित करनेके लिये आता है जैसे ''वृषम: मतीनाम्'' अर्थात् 'विचारोंका

  अधिपति', जहां स्पष्ट ही बैल और गौओंका रूपक अभिप्रेत है |

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साथ मिलकर (न: श्रव: धा: ) हमारे अंदर अन्तःप्रेरित ज्ञान निहित कर दिया है,--उस तूने जो (उग्र: ) बलशाली (स्थविर: ) स्थिर और (सहोदा: ) बलप्रदाता है, (उग्रेभि: ) उन बलशालियोंके साथ भिलकर [हमारे अंदर अन्तःप्रेरित ज्ञान निहित कर दिया है]  ।।5।।

 

स्वं पाहीन्द्र सहीयसो नुन् भवा मरुद्धिरबयातहेला ।

सुप्रकेतेभि: सासहिर्दधानो विद्यामेष बृजनं जीरदानुम् ।।6।। 

 

(इन्द्र ) हे इन्द्र ! (त्वम् ) तू (सहीयस: ) प्रवृद्ध बलवाली (नून्1 ) शक्तियोंकी (पाहि ) रक्षा कर; (मरुद्धि: अवयातहेळा: भव) मरुतोंके प्रति तेरा जो क्रोध है उसे तू दूर कर दे,--(सासहि: ) तू जो शक्तिसे परिपूर्ण है और (सुप्रकेतेभि: ) सत्य बोधसे युक्तं उन [मरुतों] के द्वारा (दधान: ) धारण किया हुआ है । हम (वृजनम् इषं विद्याम ) ऐसी प्रबल प्रेरणा प्राप्त करें जो (जीरदानुम्)  बाधाओंको वेगपूर्वक छिन्न-भिन्न कर देनेवाली है ।।6।।

 

भाष्य

 

यह सूक्त इन्द्र और अगस्त्यके संवादका उत्तरवर्ती सूक्त है और अगस्त्यकी तरफसे कहा गया है । इसमें अगस्त्य मरुतोंको मना रहा, प्रसन्न कर रहा है, क्योंकि उसने उनके यज्ञको शक्ततर देव (इन्द्र )के आदेशसे बीचमें रोक दिया था । अपेक्षाकृत कम प्रत्यक्ष रूपसे, विचारकी दृष्टिसे इस सूक्तका संबंध इसी (पहले ) मण्डलके 165वें सूक्तके साथ है । यह 165वां सूक्त इन्द्र और मरुतोंका संवादरूप है, जिसमें स्वर्गके अधिपति (इन्द्र )की सर्वोच्चता धोषित की गयी है और इन अपेक्षाकृत अल्प-प्रकाशमान मरुतोंको उसके अधीन शक्तियां स्वीकार किया गया है जो मनुष्योंको इन्द्रसे संबंधित उच्च सत्योंकी तरफ प्रेरित करती हैं । ''इनके (मनुष्योंके ) चित्रविचित्र प्रकाशवाले विचारोंको अपने प्राणका बल देते हुए इनके अंदर मेरे (मुझ इन्द्रके ) सत्योंको ज्ञानमें प्रेरित करनेवाले बन जाओ । जब कर्ता कर्मके लिये क्रियाशील हो जाय और विचारककी प्रज्ञा हमें उसके अंदर रच दे 

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1. प्रतीत होता है कि आरंभमें 'नृ'  शब्दका अर्थ क्रियाशील', 'वेगवान्' या 'दृढ़' था ।

  हमारे सामने 'नृम्ण'  शब्द है जिसका अर्थ बल है, और 'नृतमो नृणाम्' जिसका अर्थ

  है शक्तियोंमें सबसे अधिक शक्तिशाली | बादमें इसका अर्थ 'पुरुष' या 'मनुष्य' हो

  गया और वेदमें यह प्रायः उन देवोंके लिये प्रयुक्त हुआ है जो पुरुष-शक्तियां हैं जो

  प्रकृतिकी शक्तियों पर प्रभुत्व करती हैं, और जिनके मुकाबलेमें स्त्रीलिंग शक्तियां हैं

     'ग्ना' या 'गना'  |

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तब, हे मरुतो ! निश्चिततया तुम उस प्रकाशयुक्त द्रष्टा (विप्र ) के प्रति गति करने लगो'' --ये हैं उस संवादके अंतिम शब्द, उन अल्पतर देवों  (मरुतों ) को दिया गया इन्द्रका अंतिम आदेश ।

 

ये ऋचाएँ पर्याप्त स्पष्ट तौरपर मरुतोंका आध्यात्मिक व्यापार निश्चित कर देती हैं । मरुत तत्त्वतः विचारके देवता नहीं, बल्कि शक्तिके देवता हैं, तो भी उनकी शक्तियाँ सफल होती हैं मनके अंदर । साधारण अशिक्षित  (अदीक्षित ) आर्य पुजारीके लिये ये मरुत् वायु, आँधी और वर्षाकी शक्तियां थे । उनके लिये प्राय: आँधी-तूफानके रूपक ही प्रयुक्त किये गये हैं और उन्हें 'रुद्र'  अर्थात् उग्र, प्रचण्ड कहा गया है; --यह 'रुद्र'  नाम मरुतोंके साथ शक्तिके देवता अग्निको भी .दिया गया है । यद्यपि कहीं-कहीं इन्द्रको मरुतोंमें ज्येष्ठ वर्णित किया गया है,--इन्द्रज्येष्ठो मरुद्गण:,--तो भी पहले पहल यही प्रतीत होगा कि ये अपेक्षया वायुके लोकसे संबंध रखते हैं, और वायु है पवन-देवता, वैदिक संप्रदायमें जीवनका अधिपति, प्राण नामसे वर्णित उस जीवन-श्वास या क्रियाशील बलकार स्रोत और प्रेरक जो मनुष्यके अंदर वातिक और प्राणमय क्रियाओंसे द्योतित होता है । पर यह मरुतोंके बाह्य रूपका केवल एक भाग है । उग्रताकी ही तरह भ्राजिष्णुता भी उनकी विशेषता है । उनसे संबद्ध प्रत्येक वस्तु तेजोयुक्त है, वे स्वयं, उनके चमकीले शंस्त्रास्त्र, उनके स्वर्णिल आभूषण, उनके देदीप्यमान रथ--ये सभी भ्राजमान हैं । नं केवल वे वर्षाको, जलोंको, आकाशीय विपुल ऐश्वर्यको नीचे भेजते हैं,  और नवीन प्रगतियों तथा नवीन निर्माणोंके लिये मार्ग बनानेके लिये दृढ़-से-दृढ़ वस्तुओंको तोड़ गिराते हैं, बल्कि अन्य देवों इन्द्र, मित्र, वरुणकी तरह जिनके साथ मिलकर वे इन व्यापारोंको करते हैं, वे भी सत्यके सखा हैं, प्रकाशके रचयिता हैं । इसी लिये ऋषि गौतम राहूगण उनसे प्रार्थना करता है :--

 

युयं तत्सत्यशवस आविष्कर्त महित्वाना । विध्यता विधुता रक्षः ।।

गूहता गुह्यं तमो वि यात विश्वामत्रिणम् । ज्योतिष्कर्ता यदुश्मसि ।।

           ऋg० 1.86.9,10

 

''सत्यके तेजोमय बलसे युक्त मरुतो ! अपनी शक्तिशालितासे तुम उसे अभिव्यक्त कर दो; अपने विद्युद्-वज्रसे राक्षसको विद्ध कर दो ।

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1... मन्मानि चित्रा अपियातयन्त एषां भूत नवेदा म ऋतानाम् ।|

आ यद् दुवस्याद् दुवसे न कारुरस्माञ्चक्रे मान्यस्य मेधा ।

   ओ षु वर्त्त मरुतो विप्रमच्छ... (1. 165. 131, 14 )

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आवरण डालनेवाले अंधकारको छिपा दो, प्रत्येक भक्षकको दूर हटा दो, उस प्रकाशको रच दो जिसे हम चाह रहे हैं ।''

 

और एक दूसरे सूक्तमें अगस्त्य उनसे कहता है-

 

नित्यं न सूनुं मधु बिभ्रत उप क्रीडन्ति क्रीडा विहथेषु धृष्वय: । 1 .66 .2 

 

''वे अपने साथ (आनंदका ) माधुर्य लिये हुए हैं, जैसे कि अपने शाश्वत पुत्रको लिये हों, और अपना खेल खेल रहे हैं,-वे जो ज्ञानकी क्रियाओंमें तेजस्वी हैं ।''

 

इसलिये मरुत् मानस सत्ताकी शक्तियां हैं, ये वे शक्तियां हैं जो ज्ञानमें सहायक होती हैं । स्थिरीभूत सत्य, प्रसृत प्रकाश उनमें नहीं है, उनकी सम्पदा है गति, खोज, विद्युद्दीप्ति, और जब सत्य प्राप्त हो जाय तब उसके पृथक्-पृथक् प्रकाशोंका अनेकविध खेल ।

 

हम देख चुके हैं कि अगस्त्यने इन्द्रके साथ अपने संवादमें एक से अधिक बार मरुतोंकी चर्चा की है । उन्हें इन्द्रका भाई कहा है और यह कहा है कि इन्द्रको अगस्त्यपर जब कि वह पूर्णताके लिये संघर्ष कर रहा है, प्रहार नहीं करना चाहिये । उस पूर्णता-प्राप्तिमें मरुत् उसके (इन्द्रके ) उपकरण हैं, और क्योंकि ऐसा है इसलिये इन्द्रको उनका उपयोग करना चाहिये । और समर्पण तथा मैत्रीसंधानकी उपसंहाररूप उक्तिमें अगस्त्य इन्द्रसे प्रार्थना करता है कि तू फिर मरुतोंके साथ संलाप कर और उनके साथ एकमत हो जा ताकि यज्ञ दिव्य सत्यकी क्रिया और नियमक्रममें आगे उस तरफ चल सके जिस तरफ यह चलाया गया है । उस समय अगस्त्यके अंदर जो संकट पैदा हुआ था जिसने उसके मनपर ऐसा जबर्दस्त प्रभाव छोड़ा उसका स्वरूप एक उग्र संघर्षका था, जिसमें उच्चतर दिव्य शक्ति  (इन्द्र ) ने अगस्त्य तथा मरुतोंका सामना किया और उनकी रभसपूर्ण प्रगतिका विरोध किया । इस अवसरपर दिव्य प्रज्ञा (इन्द्र ) जो विश्वपर शासन करती है, तथा अगस्त्यके मनकी रभसपूर्ण अभीप्साशक्तियों (मरुतों ) के बीचेमें परस्पर एक रोष तथा कलह चलता रहा । दोनों ही शक्तियाँ मानवसत्ताको उसके लक्ष्यपर पहुँचाना चाहती हैं । पर उसकी यात्रा, प्रगति वैसे संचालित नहीं होनी चाहिये जैसा कि क्षुद्रतर दिव्य शक्तियाँ (मरुत् ) पसंद करती हैं, बल्कि यह वैसे संचालित होनी चाहिये जैसे कि गुप्त दिव्य प्रज्ञाने, जिसे सत्य सदा प्राप्त है, अबतक सत्यकी खोज कर रही अभिव्यक्त प्रज्ञाके लिये ऊर्ध्व स्तर पर दृढ़तया संकल्पित और निश्चित कर रखा है । इसलिये मानवसत्ता (अगस्त्य ) का मन बृहत्तर शक्तियोंके लिये एक रणक्षेत्र बना रहा है और अभीतक भी वह उस अनुभूतिके त्रास और भयसे कांप रहा है |

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इन्द्रको समर्पण किया जा चुका हैं, अगस्त्य अब (इस सूक्तमें) मरुतोंसे विनती कर रहा है कि वे मैत्री-संधानकी शर्तें  स्वीकार कर लें ताकि उसके आन्तरिक जीवनकी पूर्ण समस्वरता फिरसे स्थापित हो जाय । महान् देव (इन्द्र) के प्रति वह जो समर्पण कर चुका है उस समर्पणभावके साथ वह मरुतोंके पास आता हैं और उसे उनके तेजोयुक्त सैन्यतक विस्तृत करता हैं । मानसिक भूमिका तथा उसकी शक्तियोंकी पूर्णता जिसे अगस्त्य चाह रहा है, उनकी निर्मलता, सरलता, सत्यदर्शनकी शक्ति तबतक अधिगत नहीं हो सकती जबतक उच्चतर ज्ञानके प्रति विचार-शक्तियों (मरुतों) के प्रयाणमें तीब्र वेग न आ जाय । पर ज्ञानके प्रति यह गति जब गलत तरीकेसे चलायी गयी, समुचित प्रकारसे प्रकाशमय नहीं हुई, तब वह इन्द्रके जबर्दस्त विरोधके कारण रुक गयी और कुछ समयके लिये अगस्त्यके मनसे पृथक् हो गयी । इस प्रकार बाधा पाकर मरुत् अगस्त्यको छोड़ अन्य यज्ञ-कर्ताओंके पास चले गये हैं;. अब अन्यत्र ही उनके देदीप्यमान रथ चमकते हैं, अन्य क्षेत्रोंमें ही उनके वायुवेग घोड़ोंके सुम वज्रनिर्घोष करते हैं । ऋषि उनसे प्रार्थना कर रहा है कि अपना रोष एक तरफ रख दो, एक बार फिर ज्ञानके अनुसरणमें और इसकी क्रियाओंमें आनंद लो; अब और अधिक मुझे छोड्कर परे मत जाओ, अपने घोड़े खोल दो, यज्ञके आसनपर अवतीर्ण हो जाओ और वहाँ अपना स्थान ग्रहण करो, हवियोंका अपना भाग स्वीकार करो (देखो, मंत्र 1)

 

वह फिर इन शोभाशाली शक्तियों (मरुतों) को अपने अंदर सुस्थित, दृढ़ करना चाहता है, और इसके लिये वह उनके प्रति जो कुछ अर्पित कर रहा है वह है एक स्तोत्र, वैदिक ऋषियोंका 'स्तोम' । रहस्यवादियोंकी पद्धतिमें, जो भारतीय योगके संप्रदायोंमें कुछ-कुछ बची हुई है, शब्द एक शक्ति है, शब्द रचना किया करता है । क्योंकि रचनामात्र एक अभि- व्यंजन है, उच्चारण है, प्रत्येके वस्तु असीमके गुह्यधाममें पहलेसे ही विद्यमान है, गुहा हितम्, और यहाँ वह क्रियाशील चेतना द्वारा केवल व्यक्त रूपमें लायी जानी है । वैदिक विचारके भी कुछ संप्रदाय लोकोंको शब्दकी देवी (वाग्देवी) द्वारा रचित मानते हैं और यह समझते हैं कि ध्वनि प्रथम आकाशीय कंपनके रूपमें रचना की पूर्ववर्ती हुआ करती है । स्वयं वेदमें ही ऐसे संदर्भ मिलते हैं जो पवित्र मंत्रोंके कवितात्मक छन्दों-अनुष्टु्, त्रिष्टु्, जगती, गायत्री-को उन छन्दों व स्वरोंका प्रतीकभूत न्द्रते हैं जिनमें वस्तुओंकी विश्वव्यापी गति ढाली गयी है ।.

 

तो शब्दोच्चारण द्वारा हम रचना करते हैं और मनुष्योंके लिये तो

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यह भी कहा गया है कि वे मंत्र द्वारा अपने अंदर देवोंको रचित करते हैं । फिर, जिसे हमने अपनी चेतनाके अंदर शब्द द्वारा रचा है, उसे हम वहाँ शब्द द्वारा इस प्रकार सुस्थापित भी कर सकते हैं कि वह हमारी आत्माका अंग बन जाय और न केवल हमारे आन्तरिक जीवनमें बल्कि बाह्य भौतिक जगत्पर भी प्रभाव डालनेवाला हो जाय । उच्चारण द्वारा हम रचते हैं, स्तोत्र द्वारा स्थापित करते हैं । उच्चारणकी शक्तिके तौरपर शब्दको 'गी:' या 'वच्' नाम दिया जाता हैं; स्तोत्रकी शक्तिके तौरपर 'स्तोम' । दोनों ही रूपोंमें इसे 'मन्म' या 'मंत्र' और 'ब्रह्म' ये नाम दिये गये हैं; 'मन्म' या 'मंत्र'का अर्थ है मनके अंदर विचारका व्यक्तीकरण और 'ब्रह्म'का अर्थ. है हृदय या आत्माका व्यक्तीकरण । (क्योंकि ऐसा प्रतीत होता हैं .कि 'ब्रह्मन्'1 शब्दका प्रारंभिक अर्थ यही रहा होगा, बादमें यह परमात्मा या विराट् सत्ताके लिये प्रयुक्त होने लगा ।)

 

मंत्रके निर्माणकी पद्धति दूसरी ऋचामें वर्णित की गयी है और इसकी फलसाघकताके लिये जो आवश्यक शर्ते हैं वे भी वहाँ बता दी गयी हैं । अगस्त्य मरुतोंको स्तोम अर्पित करता है, जो एक साथ स्तुति और समर्पण दोनोंका स्तोत्र है । हृदय द्वारा रचा गया यह स्तोम, मन द्वारा संपुष्ट होकर मानस सत्ताके अंदर अपना समुचित स्थान प्राप्त करता है । मंत्र यद्यपि मनके अंदर विचारको अभिव्यक्त करता है तथापि वह अपने तात्त्विक अंशमें बुद्धिकी रचना नहीं है । उसके एक पवित्र तथा फलोत्पादक शब्द होनेके लिये यह आवश्यक हैं कि वह अन्तःप्रेरणाके रूपमें उस अतिमानस लोकसे आया हो जिसे वेदमें 'ऋतम्' अर्थात् सत्य नाम दिया गया है, और साथ ही वह हृदय द्वारा या प्रकाशमयी प्रज्ञा, मनीषा द्वारा बाह्य चेतनाके अंदर गृहीत हुआ हो । हृदय, वैदिक अध्यात्मविज्ञानमें, भावावेशोंके स्थानतक ही सीमित नहीं है; यह स्वत:प्रवृत्त मनके उस सारे विशाल प्रदेशको समाविष्ट किये हुए है जो हमारे अंदर अवचेतनके अधिक-से-अघिक समीप पहुँचा हुआ है तथा जिसमें से संवेदन, भावावेश, सहजज्ञान, आवेग उठते हैं और वे सब अन्तर्ज्ञान तथा अन्त:प्रेरणाएँ भी उठती हैं जो बुद्धिमें आकार प्राप्त करनेसे पहले इन उपकरणोमेंसे गुजरकर आती हैं । यह है वेद और वेदान्तका "हृदय", जिसके वाचक शब्द वेदमें 'हृदय,, 'हृद्' या 'ब्रह्मन्'

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1. यह शब्द वृह (वृहस्पति, बृह्यणस्पति) रूपमें मी पाया जाता है । और ऐसा प्रतीत होता

  है कि इसके प्राचीनतर रूप वृहन् और महन् भी रहे होंगे । वहुत संभव है कि व्रहन्

  (पष्ठी-ब्रुह्रस्) से ही, ग्रीक शब्द फ्रेनोस्  (phren,  phrenos) बने हों,

  जिनका अर्थ है मन ।

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 हैं । उस हृदयके अंदर, मनुष्यकी जैसी वर्तमान अवस्था है उसमें, 'पुरुष' केंद्रभूत होकर आसीन हुआ माना गया है । अवचेतनकी विशालताके समीप उस हृदयमें, सामान्य मनुष्यके अंदर--जो अभीतक उन्नत होकर उस उच्च लोकतक नहीं पहुँचा, जहां असीमके साथ संपर्क प्रकाशमय और घनिष्ठ तथा साक्षात् हो जाता है--विराट् आत्माकी अन्त:-प्रेरणाएँ अधिकतम सरलताके साथ प्रविष्ट हो सकती हैं और अत्यधिक तीव्रताके साथ व्यक्तिगत आत्मापर अघिकार पा सकती हैं । इसलिये हृदयकी शक्ति द्वारा ही मंत्र रचित होता है । परंतु इस मंत्रको हृदयके बोधमें ही नहीं अपितु मन (प्रज्ञा) के विचारमें भी ग्रहण तथा घारण करना होता है; क्योंकि विचारका सत्य जिसे शब्दका सत्य अभिव्यक्त करता है तबतक दृढ़तापूर्वक अधिगत नहीं किया जा सकता या तबतक सामान्यत: फलसाधक नहीं हो सकता जबतक प्रज्ञा इसे ग्रहण नहीं कर लेती, बल्कि अंडेकी तरह इसे से नहीं लेती । हृदय द्वारा विरचित होकर यह मन द्वारा सुस्थित किया जाता है ।

 

पर एक और अनुमोदन भी अपेक्षित है । वैयक्तिक मनने स्वीकृति दे दी है, विश्वकी फलसाधक शक्तियोंकी भी स्वीकृति मिलनी चाहिये । मन द्वारा धारण किये गये स्तोत्रके शब्दोंने एक नवीन मानसिक स्थितीके लिये आधार सुरक्षित कर दिया है जिसमेंसे भविष्यमें आनेवाली विचार-शक्तियोंको प्रकट होना है । मरुतोंको आवश्यक तौरपर उन (स्तोत्रके शब्दों) के पास पहुँचना चाहिये तथा उनको अपना आधार बनाना चाहिये, इन विराट् शक्तियोंका जो मन है उसे व्यक्तिगत मनकी रचनाओंको स्वीकृति देनी चाहिये तथा उनके साथ अपने-आपको जोड़ना चाहिये । केवल इसी तरह हमारी आन्तरिक या बाह्य क्रिया अपनी उच्च फलसाधकता प्राप्त कर सकती है ।

 

मरुतोंके पास ऐसा कोई कारण नहीं कि वे अपनी अनुमति देनेसे इन्कार करें या अपने विरोधको और लंबे कालतक जारी रखनेपर आग्रह करें । दिव्य शक्तियाँ स्वयमेव व्यक्तिगत आवेगकी अपेक्षा एक उच्चतर नियमका पालन करती हैं, उनका यह नैसर्गिक स्वभाव है और उनका यह कार्य भी होना चाहिये कि वे मर्त्यकी सहायता करें जिससें वह अमरके प्रति अपना समर्पण कर दे और उस सत्यके, बृहत्के प्रति आज्ञा-पालकताको अपने अंदर बढ़ाये जिसके लिये उसकी मानवीय शक्तियाँ अभीप्सा कर रही हैं (देखो, मंत्र 2) ।

 

इन्द्र स्तुत और स्वीकृत हो चुकनेके बाद अब मर्त्यके साथ अपने संपर्कमें कष्टप्रद नहीं रहा है; दिव्य संस्पर्श अब पूर्णतया शांति और सुखका सृजन

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करनेवाला हो गया है । मरुतोंको भी, स्तुत और स्वीकृत हो जानेपर, अपनी हिंसा एक तरफ रख देनी चाहिये । अपने सौम्य रूप धारण करके, अपनी क्रियामें सुखप्रद होकर, आत्माको कष्ट तथा बाधाओंके बीचमेंसे न ले जाते हुए, उन्हें भी शक्तिशाली एवं विशुद्ध-रूपसे उपकारशील सहायक बन जाना चाहिये ।

 

इस पूर्ण समस्वरताके स्थापित हो चुकनेपर, अगस्त्यका योग विजयके साथ अपने लिये निर्दिष्ट किये हुए नवीन तथा सरल मार्गपर चल पड़ेगा । लक्ष्य सर्वदा यह है कि हम जहाँ हैं वहाँसे चढ़कर एक उच्चतर स्तरपर पहुँच जायँ,--उस स्तरपर जो विभक्त तथा अहंभावपूर्ण संवेदन, भावावेश, विचार और क्रियाके सामान्य जीवनफी अपेक्षा उच्चतर है । और यह उत्थान सर्वदा इसी प्रबल संकल्पसे अनुगत होना चाहिये कि जो विरोध करते हैं तथा मार्गमें रुकावट डालते हैं उन सबपर हमें विजय प्राप्त करनी हैं । पर यह होना चाहिये सर्वाङ्गीण उत्थान । सब सुख (वनानि) जिन्हें मनुष्य पाना चाहता हैं और मनुष्यकी जागृत चेतनाकी-वेदकी संक्षिप्त प्रतीकात्मक भाषामें कहें तो उसके 'दिनो'की-सभी क्रियाशील शक्तियाँ उस उच्च स्तरतक उठ जानी चाहियें । 'वनानि'से अभिप्रेत हैं वे ग्रहणशील संवेदन जो सब बाह्य विषयोंमें आनंद प्राप्त करना चाहते हैं,  जिस आनंदके अन्वेषणके लिये ही उनकी सत्ता है । ये संवेदन भी बहिष्कृत नहीं रखे गये । किसीका भीं वर्जन नहीं करना है, सबको दिव्य चेतनाके विशुद्ध धरातलोंतक उठा ले जाना है (देखो, मन्त्र 3) ।

 

पहले अगस्त्यने मरुतोंके लिये दूसरी अवस्थाओंमें हवि तैयार की थी 1 उसके अंदर जो कुछ भी था जिसे वह इन विचार-शक्तियों (मरुतों) के हाथोंमें रख देना चाहता था उस सबको उसने इसके लिये खोल दिया था कि मरुत् उसमें अपनी गर्भित शक्तिका पूर्णतम उपयोग कर सकें; पर उसकी हविमें दोष होनेके कारण मध्य-मार्गमें ही उसके सामने एक बड़ा शक्तिशाली देव (इन्द्र) शत्रुके तौरपर आ पहुँचा था और केवल भय तथा महान् कष्टके पश्चात् ही अगस्त्यकी आँखें खुली थीं और उसके आत्माने सभर्पण कर दिया था । अबतक भी उस अनुभूतिके भावोद्वेगोंसे कांप रहा वह बाध्य कर दिया गया हैं कि उन क्रियाओंका अब बह परित्याग कर दे जिन्हें उसने ऐसी प्रबलताके साथ तैयार किया था । पर अब वह फिर मरुतोंको हवि देने लगा हैं, किंतु अबकी बार उसने उस शानदार नामके साथ और भी अधिक प्रबल 'इन्द्रके देवत्व' को जोड़ लिया है । तो मरुतोंको चाहिये कि वे उस पहली हविमें भंग पड़नेके लिये रोष न करें,

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बल्कि इस नवीन और अपेक्षाकृत अघिक उचित रूपसे परिचालित कर्मको स्वीकार कर लें (देखो, मंत्र 4)

 

अंतिम दो ऋचाओंमें अगस्त्य मरुतोंसे हटकर इन्द्रके अभिमुख होता है । मरुत् तबतक मानवीय मनके प्रगतिशील प्रकाशके प्रतिनिधि रहते हैं जबतक मनकी गतियां अपनी प्रथम धुंधली गतियोंसे, जो अभी-अभी अवचेतनके अंधकारमेंसे बाहर निकली होती हैं, उस प्रकाशमयी चेतनाकी प्रतिमामें रूपांतरित नहीं हों जातीं जिस चेतनाका अधिपति पुरुष, प्रति- निध्यात्मक पुरुष है इन्द्र । धुंधलेपनसे निकल वे (मनकी गतियाँ) सचेतन हो जाती हैं, संध्याकालीन जैसे अल्प प्रकाशसे प्रकाशित, अर्ध-प्रकाशित या भ्रांतिजनक प्रतिबिंबोंमें परिणत हुई अवस्थासे ऊपर उठ वे इन अपूर्णताओंको अतिक्रान्त कर जाती हैं और दिव्य ज्योतिको धारण कर लेती हैं । यह इतना बड़ा विकास कालमें क्रमश: सिद्ध होता है, मानवीय आत्माके प्रभातोंमें, उषाओंके अविच्छिन्न क्रमिक आगमनके द्वारा सिद्ध होता है । क्योंकि उषा वेदमें मनुष्यकी भौतिक चेतनामें दिव्य प्रकाशके नूतन आगमनोंकी प्रतीकभूत देवी हैं । यह अपनी बहिन रात्रिके साथ बारी-बारीसे आया करती है; परन्तु वह स्वयं अंधकारमयी भी प्रकाशकी एक जननी है और उषा सर्वदा उसे ही प्रकट करने आया करती हैं जिसे इस काली भौंओंवाली माता (रात्रि) ने तैयार कर रखा होता है । तो भी यहाँ ऋषि सतत उषाओंका वर्णन करता प्रतीत होता है, प्रतीयमान विश्राभके और अंधकारके इन व्यवधानोंसे विच्छिन्न उषाओंका नहीं । क्रमागत प्रकाशोंके उस सातत्यते संभूत दीप्यमान शक्तिके द्वारा मनुष्यकी मानसिक सत्ता तीव्रतापूर्वक आरोहण करती हुई पूर्णतम प्रकाश पा लेती है । पर वह बल जो इस रूपांतरको संभव बनाता हैं और इसका अधिष्ठाता है, सदा ही इन्द्रका पराक्रम होता है । यह (इन्द्र) वह परम प्रज्ञा है जो उषाओंके द्वारा, मरुतोंके द्वारा, अपने-आपको मनुष्यके अंदर उँड़ेल रही है । इन्द्र है प्रकाशमयी गौओंका वृषभ, विचार-शक्तियोंका स्वामी, प्रकाशमान उषाओंका अधिपति ।

 

अब भी इन्द्रको चाहिये कि वह मरुतोंको प्रकाशप्राप्तिके लिये अपने उपकरणके तौरपर प्रयुक्त करे । उनके द्वारा यह द्रष्टाके अतिमानस ज्ञानको प्रतिष्ठित करे । उनकी (मरुतोंकी) शक्ति द्वारा मानवीय स्वभावके अंदर उसकी (इन्द्रकी) शक्ति प्रतिष्ठित होगी और वह (इन्द्र) उस मानवस्वभावको अपनी दिव्य स्थिरता, अपनी दिव्य शक्ति प्रदान कर सकेगा, ताकि वह (मानवस्वभाव) आघातोंसे लड़खड़ा न जाय या प्रबल क्रिया--

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शीलताकी बृहत्तर क्रीड़ाको जो हमारी सामान्य क्षमताके मुकाबलेमें अत्यधिक महान् है, धारण करनेमें विफल न हो जाय (देखो, मंत्र 5)

 

मूरुत् इस प्रकार शक्तिमें प्रबल होकर सदा उच्चतर शक्तिके पथ-प्रदर्शन और रक्षणकी अपेक्षा करेंगे । वे हैं पृथक्-पृथक् विचार-शक्तियोंके अधिपति पुरुष, इन्द्र हैं इकट्ठा सब विचार-शक्तियोंका अधिपति एक पुरुष । उस (इन्द्र) में वे (मरुत्) अपनी परिपूर्णता तथा समस्वरता पाते हैं । तो अब इस अङ्गी (इन्द्र) तथा इन अंगों (मरुतों) के बीच कलह और विरोध नहीं रहना चाहिये । मरुत् इन्द्रको स्वीकार कर उससे उन वस्तुओंका उचित बोध पा लेंगे जिनका जानना अभीष्ट होगा । वे आंशिक प्रकाशकी चमक द्वारा भ्रांतिमें नहीं पड़ेंगे या सीमित शक्तिसे ग्रस्त होकर लक्ष्यसे बहुत दूर नहीं जा पड़ेंगे । वे इस योग्य हो जायँगे कि इन्द्रकी क्रियाको धारण किये रख सकें, जब कि वह (इन्द्र) उन सबके विरोधमें अपनी शक्ति लगाये जो अब भी आत्माके और उसकी संपूर्णताके बीचमें बाधक होकर खड़े हो सकते हैं ।

 

इस प्रकार इन दिव्य शक्तियोंकी तथा इनकी अभीप्साओंकी समस्वरतामें मानवीयता वह प्रेरणा पा सकेगी जो इस जगत्के सहस्रों विरोधोंको तोड़- फोड़ डालनेमें पर्याप्त सबल होगी और वह मानवीयता, संघटित व्यक्तित्व-वाले व्यक्तिमें या जातिमें, सत्वर उस लक्ष्यकी तरफ प्रवृत्त हो जायगी जिस लक्ष्यकी झांकी तो निरंतर मिला करती है पर तो भी जो उस मनुष्यके लिये भी अभी बहुत दूर ही है जिसे अपने संबंधमें यह प्रतीत होने लगा है कि मैंने तो लक्ष्यको लगभग पा ही लिया है (देखो, मंत्र 6)

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